न्यायपालिका पर उठते सवाल: महाभियोग के लिए सत्ता पक्ष पर दबाव क्यों?

गुप्त काल (पांचवीं सदी) की प्रशंसा में चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है कि ‘कानून सरल और उदार थे। अपराधों की गुह्यता के आधार पर दंड व्यवस्था है।’ आखिरकार चूक कहां हो रही है? निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमों का अंबार है।विचारणीय प्रश्न है कि भ्रष्टाचार में प्रथमदृष्टया लिप्त पाए गए न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग लाने के लिए सत्ता पक्ष को क्यों विवश किया जा रहा है?

Jun 8, 2025 - 23:21
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न्यायपालिका पर उठते सवाल: महाभियोग के लिए सत्ता पक्ष पर दबाव क्यों?

नई दिल्ली (आरएनआई) भारतीय न्यायपालिका विश्वास के संकट से गुजर रही है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा है कि ‘न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की घटनाओं से जनता के विश्वास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और इससे पूरी न्याय प्रणाली में विश्वास कम हो सकता है।’ यह गंभीर बात उन्होंने तब कही है, जब भ्रष्टाचार के मामले में जस्टिस यशवंत वर्मा के विरुद्ध महाभियोग पर सत्ता पक्ष विपक्षी दलों से विचार विमर्श कर रहा है।

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजीजू ने बीते दिनों कहा था कि ‘न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को राजनीतिक दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। सरकार न्यायमूर्ति वर्मा को हटाने के महाभियोग प्रस्ताव पर सभी दलों का सहयोग चाहती है।’ उन्होंने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति ने भी वर्मा को दोषी ठहराया है। देश में न्यायिक सुधारों की मांग काफी पुरानी है। केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया था। न्यायिक सुधारों की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम था, पर जजों की नियुक्ति की उस प्रणाली को न्यायपालिका द्वारा निरस्त कर दिया गया था।

कहा गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान का आधारिक लक्षण है। मुख्य न्यायाधीश गवई ने भी कहा है कि ‘वर्तमान कोलेजियम प्रणाली आलोचना से रहित नहीं है, पर इसका समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं हो सकता।’ न्यायिक स्वतंत्रता की बात ठीक है, संवैधानिक है, पर न्यायपालिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं द्वारा मर्यादा पालन जरूरी है।

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और कदाचरण के प्रश्न लगातार उठते रहे हैं। न्यायमूर्तियों के विरुद्ध महाभियोग की कार्रवाई जटिल है। संविधान के अनुच्छेद 124 उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एवं अनुच्छेद 217 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर कार्रवाई के लिए लोकसभा और राज्यसभा के सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। दोनों सदन के सदस्यों का सामान्य बहुमत और वोट डालने वाले उपस्थित सदस्यों का दो तिहाई बहुमत अनिवार्य है। इसके पूर्व लोकसभाध्यक्ष/सभापति एक जांच समिति गठित करते हैं। इस जांच के बाद कार्रवाई आगे बढ़ती है।

न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी के विरुद्ध 1993 में लोकसभा में पहला महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था, लेकिन अपेक्षित बहुमत के अभाव में गिर गया। 2011 में कोलकाता हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति सौमित्र सेन ने राज्यसभा द्वारा पारित महाभियोग प्रस्ताव पर त्यागपत्र दे दिया था। 2015 में राज्यसभा के 58 सदस्यों ने गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश जे. पारदीवाला के विरुद्ध आरक्षण संबंधी आपत्तिजनक बयान पर महाभियोग का नोटिस दिया था। उसी साल लगभग 50 राज्यसभा सदस्यों ने न्यायमूर्ति एसके गंगेले के विरुद्ध नोटिस दिया था। उन पर जिला जज के यौन उत्पीड़न का आरोप था। जजेज इंक्वायरी एक्ट (1968) के अधीन जांच कमेटी बनाई गई थी। प्रस्ताव पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में निरस्त हो गया। 2017 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के न्यायमूर्ति सीवी नागार्जुन रेड्डी के विरुद्ध भी राज्यसभा सदस्यों ने महाभियोग प्रस्ताव रखा था। 2018 में विपक्षी दलों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध भी महाभियोग के प्रस्ताव का प्रयास किया था। सिक्किम हाई कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पीडी दिनाकरन के विरुद्ध आए प्रस्ताव पर राज्यसभा के सभापति ने आरोप जांचने के लिए समिति गठित की थी। दिनाकरन ने इसी दौरान त्यागपत्र दे दिया।

भारतीय संविधान के प्रवर्तन के 75 वर्ष के भीतर महाभियोग के सिर्फ पांच प्रस्ताव सिद्ध करते हैं कि महाभियोग प्रक्रिया बहुत जटिल है। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने के लिए विशेष सुरक्षा कवच उपलब्ध कराए हैं। कायदे से न्यायपालिका को स्वयं अपने तंत्र के भीतर भ्रष्टाचार और लोक शिकायतों की जांच का कोई ढांचा विकसित करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संविधान निर्माता स्वतंत्र न्यायपालिका एवं सबको न्याय की गारंटी चाहते थे।

संविधान सभा में (छह जून, 1949) सी. दास ने कहा था, ‘विश्वास है कि डा. आंबेडकर एवं सदन के अन्य विधि विद्वान ऐसी व्यवस्था करेंगे, जिसमें लोगों को न्याय मिले।’ सभा में सुप्रीम कोर्ट के कार्य आवंटन पर बहस चल रही थी। दास ने कहा, ‘मेरे मित्र ब्रिटिश प्रणाली के न्याय निर्वचन पर क्यों मुग्ध हैं? प्रस्तावित उपबंधों के अनुसार एक न्यायालय से दूसरे एवं अंत में सर्वोच्च न्यायालय में अपील जाएगी। ऐसी हालत में जनसाधारण को न्याय कैसे मिलेगा?’ विधिवेत्ता अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा, ‘इंग्लैंड धनी देश है। जनसंख्या चार करोड़ है। हमारी जनसंख्या 30 करोड़ है। यहां गारंटी होनी चाहिए कि हर व्यक्ति को न्याय मिलेगा।’ न्याय सबकी अभिलाषा थी और है। सभा में एम. थीरुमल राव ने कहा, ‘न्यायालयों का जाल बिछ गया है, लेकिन इन न्यायालयों में वही जा सकते हैं जो संपन्न हैं।’

संप्रति न्यायिक प्रक्रिया बहुत महंगी है। संपन्न के लिए सर्वसुलभ है और गरीबों के लिए महादुर्लभ है। यह स्थिति उस देश की है, जहां हजारों वर्ष पहले भी सर्वसुलभ राजव्यवस्था एवं न्यायव्यवस्था थी। ऋग्वेद के रचनाकाल में ‘ग्राम्यवादिन’ न्याय की छोटी इकाई थी। उत्तर वैदिक काल में न्यायाधीश को स्थपति बताया गया है। बुद्ध काल की न्याय व्यवस्था बहुत लोकप्रिय थी। चंद्रगुप्त मौर्य (320 ईस्वी) के कार्यकाल में ग्राम न्यायालय, जनपद न्यायालय एवं केंद्रीय न्यायालय थे।

गुप्त काल (पांचवीं सदी) की प्रशंसा में चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है कि ‘कानून सरल और उदार थे। अपराधों की गुह्यता के आधार पर दंड व्यवस्था है।’ आखिरकार चूक कहां हो रही है? निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमों का अंबार है। विचारणीय प्रश्न है कि भ्रष्टाचार में प्रथमदृष्टया लिप्त पाए गए न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग लाने के लिए सत्ता पक्ष को क्यों विवश किया जा रहा है? ज्यादातर मामलों में उच्च अदालतें यही वाक्य दोहराती हैं कि सरकारें अपना काम नहीं करतीं तो क्या हम चुप बैठें। यहां स्थिति उल्टी है। सरकार अपना पूरा काम करने को तत्पर है और न्यायपालिका मौन है।

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