श्रीकृष्ण की भूमि मथुरा नगरी। रसिकों को लुभाता वृंदावन। लाड़ली नवल किशोरी की रजभूमि बरसाना। माया के बंधनों से मुक्ति की यह भूमि माया के बंधनों में ही जकड़ती दिखाई दे रही है। खेतों और कछारों में उग आए कंक्रीट के जंगलों के बीच ब्रज रज कहीं खो गई है। विकास के स्वर्गादीप दावों के बीच रसिकों की रस मंजरी सूख रही है। बच रही है तो केवल भीड़ जिसने वृंदावन की गलियों में सिर्फ जाम छोड़ा है। बीते करीब 10 सालों से कृष्णभूमि के विकास के स्वर्गलोकी मॉडल के ऐसे सपने दिखाए गए कि लोभ की लपलपाती आंखें कान्हा की रसस्थली में चारों तरफ उग आई हैं। बेहतर के उच्चारित दावों और बजटों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिससे यह कहा जाए कि इस भूमि पर पुरातन ब्रज फिर बसाया जा रहा है, स्वर्ग उतारा जा रहा है। बाजार की बजबजाती गंध जरूर महसूस की जा सकती है। हां. इन अक्षय दावों का असर यह हुआ है कि यहां भूमि विक्रय का एक विकट बाजार खड़ा हो गया है। यह अनियंत्रित बाजार जब कुछ निगल जाने को तत्पर है। आवासीय भूखंड के दामों में भारी बढ़ोतरी के साथ इस अवसर का लाभ कमाती जेबों का आकार बढ़ा है। वहां एक नया इंद्रलोक उतरा है।
विकास के नाम पर कुछ बोर्ड लग जाने, इक्का-दुक्का मार्ग बन जाने, लाल-सफेद पत्थर जड़ जाने के अलावा जो कुछ हुआ है वह अभी कागजों में है। ब्रज तीर्थ विकास परिषद बनाते हुए तय तो यह हुआ था कि ब्रज भूमि का पुरातन स्वरूप लौटाया जाएगा। वन, उपवन, कुंड और तालाबों का संरक्षण होगा। उन्हें नए सिरे से संवारा जाएगा। असल में जो कुछ हुआ है वह इसके उलट है। वन, उपवन संवारने के नाम पर यमुना के कछार पर कब्जे की विकट कोशिश जारी है। यमुना की उस भूमि पर भी विकास के नाम पर निर्माण किए जा रहे हैं, जो इस काम के लिए निरापद नहीं है। वृक्षारोपण के नाम पर यमुना के बहाव क्षेत्र में धीरे से निर्माण करा दिए जा रहे हैं। उन पवित्र कुंड़ों और कान्हा की पटरानी को बचाने को तो कोई कोशिश ही नहीं दिखाई दे रही है जिनके होने से यह भूमि पूज्यनीय है। गोवर्धन से लेकर बलदेव तक सारे कुंड कालिमा से लदे हैं। इस दिशा में उज्ज्वल ब्रज ने जो थोड़े बहुत प्रयास किए थे वे भी कराह रहे हैं।
इसके उलट, ब्रज के खेतों में तेजी से कालोनियां उग आई हैं। पहले यह उगना वृंदावन के आसपास ही हुआ। फिर बलदेव से लेकर बरसाना, गोवर्धन, वृंदावन को जोड़ता हुआ यमुना एक्सप्रेस तक जाता रिंग रोड बनाने का हल्ला हुआ। कारीड़ोर और यमुना पर नए सिग्नेचर ब्रिज के समाचार आने लगे। विकास का स्वप्न लोक खड़ा हुआ तो सपने तैरने लगे। वृंदावन से शुरू भूखंड काटने का काम अब विस्तार पाकर गोवर्धन, बरसाना, छाता तक पहुंच गया है। सपने ने कीमतों को पंख लगा दिए हैं। बरेली हाईवे के निर्माण कार्य के साथ ही बलदेव और यमुना पार में भी आवासीय कालोनियों के लिए भूखंड़ की संख्या बढ़ती जा रही है। नियोजित सा दिखता यह विकास असल में ऐसा अनियोजन है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। भूखंड के दामों की कीमतें कैसे निर्धारित होती है, इसका कोई निर्धारित फार्मूला नहीं है। यह बाजार की मांग तय करती है। ब्रज में यह मांग आवश्यता के आधार पर नहीं बल्कि मोक्ष और लाभ की अजीब जुगलबंदी का उदाहरण लिए हुए हैं। यह मांग ऐसी छदम मांग है जो न होते हुए भी होती सी लग रही है। अर्थात इन आवासों की ब्रजवासियों को जरूरत नहीं है, बल्कि यह ब्रजवास के लिए हैं। इसमें वह धन संपदा आ रही है जो एनसीआर में बेहिसाब काम से बंटोरी गई है। इस काम में वे भूमि कारोबारी हैं जिन्होंने एनसीआर में मोटा लाभ कमाने के बाद इधर रुख किया है। जिनकी नजरें अब जेवर से लेकर वृंदावन तक एक नए लाभ को टटोलती, बंटोरती लगी हुई हैं।
यहां बढ़ रहे भूमि के दाम कल्पना के परे हैं। वृंदावन में बाहरी क्षेत्र में ही एप्रूव्ड जमीन की कीमत 45 से 55 हजार वर्ग गज तक है। प्राइम लोकेशन पर तो यह 80 हजार वर्ग गज तक पहुंच गई है। गोवर्धन, बरसाना, में एप्रूव्ड जगह की कीमत 32 हजार वर्ग गज से कहीं कम नहीं है। छाता में जमीन की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। यहां 18 से 24 हजार वर्ग गज तक बिक रही हैं। अब तो छाता से गोवर्धन और बरसाना जाने वाले मार्ग पर भी लगातार कालोनी कट रही हैं।
ये वे जगह हैं, जहां आज से पांच साल पहले तक कोई रहना पसंद नहीं करता था। बरसाना मार्ग पर जहां घास भी नहीं उगती है, खारे पानी के अलावा कुछ नहीं है, वहां भी जमीन की कीमत 8 से 10 हजार रुपये वर्ग गज है। बदलाव समय का नैसर्गिक गुण है। समय के साथ सब कुछ बदलता है। बदलना भी चाहिए, लेकिन कई बार ये परिवर्तन असहज कर जाते हैं।
भारत का संविधान किसी भी नागरिक को देश में कहीं भी रहने का अधिकार देता है। यानी आप कहीं भी अपनी जमीन खरीद के रह सकता है। ऐसी बसावट अनियोजित ना हो उसमें एक नियोजन रहे इसके लिए ही विकास प्राधिकरण और आवास विकास जैसे संस्थानों का गठन किया गया, ताकि जरूरत पर एक उचित कीमत पर आवास लोगों को उपलब्ध कराए जा सकें। साथ ही, उस शहर का एक नियोजित विकास हो सके। यानी कि नागरिक को एक उचित दाम पर आवास उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी इन संस्थाओं की है। मगर, यह संस्थाएं अपना काम बखूबी नहीं करतीं। किसान से जमीन खरीदकर एक निजी बिल्डर बड़ी आसानी से आवास बनाकर उन्हें बेचकर लाभ कमा लेता है। वहीं, अपनी ही यानी सरकारी जमीन पर ये संस्थाएं अपना काम क्यों नहीं कर पाती हैं। इसका सीधा जवाब है कि ये संस्थाएं आम नागरिक के हित की बजाय निजी बिल्डरों के हित का साधन करती हैं और सिर्फ धन उगाही पर ध्यान देती है। वर्ना क्या कारण है कि ये संस्थाएं जहां योजना ही बनाती रहती हैं उन जगहों पर निजी बिल्डर अपना काम करके चले जाते हैं। यह संस्थाएं उतनी तेजी से उतने आवाज उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं जितनी बाजार में मांग है। इस तरह यह दोहरा नुकसान कर रहे हैं एक सरकार के राजस्व का और दूसरा आम नागरिकों के हितों का। इनके नियम ही इतने पेचीदगी भरे हैं कि एक व्यक्ति सहज अपना मकान नहीं बना सकता, मगर एक बिल्डर बड़ी आसानी से कॉलोनी खड़ा कर सकता है। यह जादूई करिश्मा अधिकारी की मेज पर तरलता लाए बिना संभव ही नहीं है। यह चिकनाई निजी बिल्डर बड़ी आसानी से ला देते हैं, जो किसी आम व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यही वह गणित है जहां आवास विकास, विकास प्राधिकरण जैसी संस्था चुप बैठी रहती हैं और बिल्डर मुनाफा कूटते रहते हैं। मुनाफा कूटने के इस खेल में नियोजन पीछे छूट जाता है और लाभ आगे निकल जाता है। मुनाफे के इस खेल के पीछे राजनीति के मैदान में सक्रिय वे तत्व हैं जिनकी नजर मिट्टी से मुनाफे पर टिकी रहती हैं। अपनी विलक्षण घ्राणशक्ति से ये योजना बनने से पहले ही उस क्षेत्र की जमीनों को खरीद लेते हैं और फिर मोटा मुनाफा बनाते हैं। कई बार इसका उल्टा भी होता है और ऐसी जमीनों को मुनाफा दिलाने के लिए पूरी योजना भी बना दी जाती है। यह ऐसा सच है जो नग्न आंखों से नजर नहीं आता। इसके लिए दिव्य दृष्टि शक्ति की जरूरत है, होती है। आम आदमी को ना तो इसकी समझ है और ना ही वह यह कष्ट उठाना चाहते है। वह तो बस राधे के भरोसे है, होता है।
कृष्ण की भूमि भी तेजी से बदलाव से गुजर रही है। भाव और भक्ति से भरे रसिकों की भूमि से ख्यातिमान कथावाचक निकले हैं। निकल रहे हैं। देश-विदेश तक.उनकी धूम है। लता-पता और कुटियों में बैठकर भजन करने वाले रसिकों की भूमि पर बड़े-बड़े आश्रम हैं। उनसे झांकती समृद्धि है। वह सब कुछ है जिसे आज विकास कहा जाता है। मगर, यह बदलाव वृंदा के वन को भाव की भूमि मानने वालों को रास नहीं आ रहा है। वे मथुरापति की क्रीड़ाभूमि पर बढ़ती भीड़ से अकुलाहट में हैं। माया के इस प्रसार को देख उनकी भक्ति चकित है। उनका अन्तर्मन आर्तनाद कर रहा है। भक्ति पुकार रही है।
`ब्रज रज तज अब कित मैं जाऊं।`
इस सबके लिए जिम्मेदार कौन संस्था है, वे कौन लोग हैं जो सब कुछ मनमर्जी से करने पर उतारू हैं। ब्रजवासी यह सब भलीभांति जानते हैं। आप सब जानते हैं वे कौन हैं जिन्हें नियमों और ब्रज की मर्यादाओं की परवाह नहीं। ये गलती है तो इसके विरोध की आवाज सबसे पहले वृंदावन से हो उठनी चाहिए थी। मगर, कृष्ण की नगरी मौन है। क्या सचमुच पटका और भंड़ारे ने ब्रज की मुखर बुद्धि को मौन कर दिया है। अगर, यही सच है तो बोलने की ज़िम्मेदारी हर बार कोई बाहरवाला ही क्यों उठाए।