कुछ सवाल हमारे मन में घुमड़ते रहते हैं, उन पर विस्तार से चर्चा नहीं हो पाती है। ऐसी ही जिज्ञासा मोबाइल फोन के इस दौर में फोटोग्राफी को लेकर है। आज जब हर मोबाइल फोनधारक छायाकार है, इन बदलावों को किस रूप में लिया जा रहा है? सुविधा बढ़ी है तो क्या गुणवत्ता घटी है? क्या छायाचित्र केवल अभिलेखीकरण के माध्यम बनते जा रहे हैं और उनमें कला होने की संभावना कम होती जा रही है?
अनिल रिसाल सिंह विख्यात छायाकार हैं। उनकी रेजीडेंसी पर आधारित छायाचित्र प्रदर्शनी इन दिनों लखनऊ के सेंट्रम होटल की कला दीर्घा में चल रही है। प्रदर्शनी के दौरान इस पर विस्तृत संवाद का अवसर उपलब्ध होना सोने में सुहागा जैसा रहा। खुद अनिल रिसाल सिंह के अतिरिक्त मनोज छाबड़ा, संदीप कुमार जैसे समाचार पत्रों से जुड़े वरिष्ठ छायाकार, ललित कला अकादमी के पूर्व उप सचिव एवं भोपाल में सहायक प्रोफेसर आशीष पाटिल, इमामाबाड़ा पर कई छायाचित्र प्रदर्शनियां कर चुके आजेश जायसवाल, मोबाइल फोन फोटोग्राफी पर लंबे समय से काम कर रहे कला एवं शिल्प महाविद्यालय के अतुल हुंडू, छायाकार संजय जैन, रंगकर्मी गुंजन जैन के साथ ही कला के कई छात्र-छात्राओं ने संवाद में शिरकत की।
चर्चा में मुख्यतः इस बात पर सहमति रही कि मोबाइल फोन के आ जाने से छायाचित्रण न सिर्फ आसान हो गया है बल्कि नई-नई सुविधाएं मिल रही हैं। अनिल रिसाल सिंह ने स्वीकार किया कि प्रदर्शनी में प्रदर्शित बड़ी संख्या में चित्र मोबाइल फोन से ही लिए गए हैं। अतुल हुंडू ने मोबाइल फोटोग्राफी की तकनीक पर विस्तार से चर्चा की। मेरा मानना रहा कि तकनीक को रोका नहीं जा सकता, उसे साथ लेकर ही कलात्मकता के सफर पर चलना चाहिए लेकिन यंत्र और तकनीक से अधिक व्यक्ति का दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण है जो रचना में विचार को बड़ा बनाता है।
होटल के स्वामी सर्वेश गोयल ने बताया कि किस प्रकार वे लंबे समय तक भवन के कलात्मक चित्रों के लिए परेशान थे। दीर्घा के निदेशक राकेश कुमार मौर्य ने स्वागत किया। विद्यार्थियों ने सवाल भी किए। 15 जून तक चलने वाली यह प्रदर्शनी छायाचित्रों के साथ ही उसके बदलते संसार पर चर्चा के लिए भी स्मृति में रहेगी।